बिहारी के दोहे

बिहारी के दोहे

-बिहारीलाल

सार संक्षेप - हिन्दी साहित्य में महाकवि बिहारी के सतसैया के दोहों का बहुत ऊँचा स्थान है। सौन्दर्य प्रेम, इन दोहों का मूल स्वर है। दोहों में गागर में सागर भर दिया गया है। प्रत्येक दोहा एक स्वर्ण मोहर है। संकलित दोहों में ईश भक्ति, नायिका के संयोग-वियोग, प्रेम-लीला, आकर्षण- विकर्षण व उदात्त श्रृंगार की अभिव्यक्ति है। बिहारी अपनी सतसई के द्वारा ही हिन्दी साहित्य में अमर हैं।

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ ।

सौंह करै, भौंहनि हँसे, दैन कहै, नटि जाइ ॥


शब्दार्थ--बतरस =बात करने का आनन्द। सौंह = शपथ। लालच =  लोभ| लाल = श्रीकृष्ण। मुरली = वंशी । धरी= रख दी। लुकाइ = छिपाकर । भौंहनि = भौहों से। दैन कहँ = देने  के लिए कहे। नटि जाई  = ना कह दे । 

सन्दर्भ - प्रस्तुत दोहा ‘बिहारी के दोहे' से उद्धृत किया गया है। यह रचना कवि बिहारी की है। बिहारीलाल जी रीतिकाल के रीतिसिद्ध कवि हैं। इनके दोहे देखने में भले छोटे लगते हैं, परन्तु गंभीर अर्थ वाले होते हैं।

प्रसंग—यहाँ पर राधा-कृष्ण के पारस्परिक प्रेम का वर्णन किया गया है। व्याख्या -राधा-कृष्ण से ठिठोली कर रही है। वह कृष्ण से बातचीत का आनन्द लेना चाहती है। इस अभिप्राय से वह कृष्ण की मुरली को छिपा देती है। उधर कृष्ण अपनी बाँसुरी पाने के लिए बेचैन हैं। वे सबसे पूछते हैं कि कहीं उन्होंने उनकी मुरली देखी है। आखिर में वे राधा के पास जाते हैं। उससे मुरली का पता ठिकाना पूछते हैं। जब कृष्ण उससे वाँसुरी माँगते हैं तो वह शपथ खाकर कहती है कि बाँसुरी मेरे पास नहीं है, किन्तु उसी क्षण उसकी भाँहों में हँसी उमड़ आती है जिससे कृष्ण को पता चलता है कि मुरली इसी के पास है। आग्रह करने पर वह बाँसुरी देने के लिए भी तत्पर होती है और बाद में देने से फिर इन्कार कर देती है और कहती है कि मुरली उसके पास नहीं है।


काव्य-सौन्दर्य - यहाँ राधा के प्रेम की व्यंजना हुई है। यहाँ अनेक संचारी भावों का सन्निवेश है तथा भावों की गतिमयता देखते ही बनती है। स्वभावोक्ति तथा दीपक अलंकार। श्रृंगारिकरता। इस दोहे में ‘गागर में सागर' भरा हुआ है।

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