"नैराश्य की अन्तिम अवस्था विरक्ति होती है।"
पल्लवन- किसी कार्य को जब हम पुनः पुनः सम्पादित करते हैं, लेकिन यदि निराशा हाथ लगती है तब हम हताश हो जाते हैं, हमारी अपनी शक्तियों के ऊपर से आस्था उठ जाती है। तब हम अपनी आस्था को खो देते हैं तो हम उदासीन होकर अकर्मण्यता का शिकार हो जाते हैं। उदासीन व्यक्ति के हृदय से प्रसन्नता तथा आशा का लोप हो जाता है। वह जिन्दा रहते हुए भी जीवित लाश की तरह विचरण करता है। निराशा का गहन अँधेरा उसे चहुँ ओर से आवृत कर लेता है। उसे अपने तथा पराये के मध्य भेद स्थापित करना असम्भव हो जाता है। विश्व उसके लिए आकर्षण का केन्द्र नहीं रह जाता है। ऐसा मानव अपना अलग ही संसार निर्मित कर लेता है। वह आलसी, निष्क्रिय तथा विश्व से तटस्थ हो जाता । यह अवस्था पूर्णतः निराश होने पर ही उत्पन्न होती है, इसमें मानव अपने को पूर्णतः जर्जरित तथा हताश अनुभव करता है। ऐसा मानव संसार से दूर जाकर कहीं अन्यत्र अपना संसार बसाना चाहता है । इसी को मनीषी विरक्ति की भावना से सम्बोधित करते हैं। यह सूक्ति मानव मानव के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक सत्य को उद्घाटित कर रही है। किसी कवि के शब्दों में
“जिनको आशा ही नहीं, उनके लिए जग ही तमाशा है।"
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