प्रश्न . देवनागरी लिपि की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
"नागरी" की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
देवनागरी लिपि की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। उत्तर नागरी की विशेषताएँ
यों तो अपनी सन्तान के ही समान प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही भाषा और लिपि सर्वाधिक सुन्दर और प्रिय होती है, किन्तु तटस्थ, पूर्वाग्रह रहित एवं उदार दृष्टि वाले व्यक्ति इस स्वाभाविक किन्तु परिहार्य मोह के ऊपर उठकर वास्तविक सत्य का वरण करते हैं। विश्व के ऐसे अधिकांश विद्वानों की यह मान्यता है कि नागरी संसार की समस्त वर्तमान लिपियों से अधिक वैज्ञानिक है। आइजक पिटमैन का, जिन्होंने शीघ्रलिपि (फोनोग्राफी) का अनुसन्धान किया था का कथन है कि "संसार की कोई लिपि यदि सर्वाधिक पूर्ण है तो वह एक मात्र देवनागरी है।" इसी प्रकार मोनियर विलियम्स ने लिखा है, "देवनागरी में यद्यपि Z और F (ज और फ) के लिए वर्ण नहीं हैं, फिर भी यह सभी ज्ञात लिपियों से अधिक पूर्ण एवं सन्तुलित है।" यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ज और फ के नीचे बिन्दु (नुकता) के प्रयोग के द्वारा देवनागरी के उपर्युक्त तथाकथित अभाव तथा इस प्रकार के अन्य कतिपय वर्णों के अभाव की भी पूर्ति कर दी गयी है।जिन गुणों ने नागरी को विश्व की सर्वाधिक पूर्ण और सन्तुलित लिपि होने की योग्यता और गौरव प्रदान किया है, वे संक्षेप में निम्नलिखित हैं (1) यह भाषान्तर्गत आने वाले अधिक-से-अधिक ध्वनि-चिह्नों (वर्णों) से सम्पन्न है।
(2) इसकी वर्णमाला में स्वर एवं व्यंजन का वर्गीकरण ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति से उच्चारण एवं प्रयत्नों के आधार पर किया गया है।
(3) इसमें प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग-अलग ऐसे स्वतन्त्र वर्ण हैं, जिनमें परस्पर भ्रम की कोई सम्भावना नहीं।
(4) इसका वर्तमान स्वरूप युगों के प्रयोग पर आधारित है, इस कारण इसे दीर्घ परम्परा का बल प्राप्त है।
(5) इसकी वर्णमाला और वर्तनी को सीख लेने पर शब्दों के हिज्जे (स्पेलिंग) अर्थात् वर्तनी रटने की आवश्यकता नहीं पड़ती, केवल शब्दों का शुद्ध उच्चारण जानने ही से उन्हें शुद्ध-शुद्ध लिखा जा सकता है।
(6) ब्राह्मी की उत्तराधिकारिणी होने के कारण समस्त आधुनिक भारतीय लिपियों से इसका यत्किञ्चित् साम्य है।
(7) इसमें जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है और जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है
(8) इसमें प्रत्येक स्वर वर्ण के लिए अलग से स्वतन्त्र मात्रा-चिह्न निश्चित हैं, जिनके प्रयोग के द्वारा स्वरयुक्त व्यञ्जनों अर्थात् अक्षरों (सिलेबुल्स) को उच्चारण के अनुरूप ही स्वतन्त्र अक्षरों में लिपिबद्ध किया जा सकता है।
(9) उपर्युक्त आठवें गुण के कारण इसमें कम स्थान में अधिक शब्द लिखे जा सकते हैं।
(10) इस लिपि में लिखित शब्दों के प्रत्येक वर्ण का उच्चारण अनिवार्य होता है।
(11) यह लेखन वाचन दोनों ही दृष्टियों से सरल एवं सहज है।
(12) इसका रूप अत्यन्त नेत्राकर्षक है।
(13) यह त्वरा-लेखन के अनुकूल है।
(14) राष्ट्र का प्राचीनतम वैभवशाली वाङ्मय इसी में लिपिबद्ध है। (15) यह वेदवाणी से सम्बद्ध होने के कारण शास्त्रपूत है।
(16) यह वैज्ञानिक पद्धति से निर्मित होने के कारण सरलता से सीखने योग्य हैं।
(17) यत्किञ्चित अपेक्षित परिवर्धन कर देने पर संसार की कोई भी भाषा इसके माध्यम से सफलतापूर्वक लिखी जा सकती है।
(18) यह भारत की अन्तर्देशीय लिपि तो है ही, साथ ही उपर्युक्त सत्रहवें गुण के कारण अन्तरराष्ट्रीय लिपि बनाये जाने के भी योग्य है।
(19) इस पर किसी भाषा विशेष का एकाधिपत्य नहीं है। यह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, मराठी, नेपाली आदि अनेक भाषाओं की लिपि है और अन्य किसी भी भाषा की लिपि हो सकती है।
(20) यह अक्षरात्मक लिपि है और लिपि के अद्यतन विकास की अन्तिम कड़ी है।
(21) इसके प्रत्येक वर्ण का सर्वत्र उच्चारण होता है।
(22) इसमें विभिन्न स्थानीय अनुनासिक ध्वनियों के लिए तो अलग-अलग स्वतन्त्र वर्ण (इ, ञ, ण. न. मु) हैं हीं, जो इतनी संख्या में संसार की किसी भी अन्य लिपि में नहीं हैं, साथ ही विभिन्न मात्रा में स्वरों के नासिक्यीकरण (नेजेलाइजेशन) के लिए, अनुस्वार और चन्द्रविन्दु जैसे अयोगवाहों की उपस्थिति इसकी ध्वनि वैज्ञानिक पूर्णता को पराकाष्ठा तक पहुँचा देती है।
(23) इसमें संयुक्त वर्ण रचना की विलक्षण क्षमता है, जो इसके वैज्ञानिक सन्तुलन एवं पूर्णता का ज्वलन्त प्रमाण है।
(24) यह ध्वन्यात्मक तथा स्वनियात्मक प्रतिलेखन एवं लिप्यन्तरण (फोनोटिक एण्ड फोनेमिक ट्रान्सक्रिप्शन और ट्रान्सलिट्रेशन) के पर्याप्त अनुकूल है।
(25) इस लिपि में लिखे शब्दों को पढ़ने के लिए अनुमान या अटकल से कहीं भी सहायता लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
(26) इसके वर्णों में रोमन वर्णों के समान छोटे-बड़े (कैपिटल और स्मॉल) वर्णों के अलग-अलग रूप की उलझन नहीं है। इसी कारण लेखन, मुद्रण एवं टंकन, सबमें इसके वर्ण सर्वत्र (आदि-मध्य-अन्त में) एक समान रहते हैं।
(27) भारर्तीय साहित्य में कुछ ऐसे रूप विकसित हुए हैं, जो केवल देव-नागरी में ही में लिखे जा सकते हैं। उदाहरणार्थ- चित्रालंकारों के पद्मबन्ध, खड्गबन्ध, मुराजबन्ध, गोमूत्रिकावन्ध आदि किसी अन्य लिपि में नहीं लिखे जा सकते। इसी प्रकार गतागत छन्द का विन्यास भी देवनागरी में ही सम्भव है। उदाहरणार्थ केशव दास का निम्नलिखित छन्द द्रष्टव्य है, जो किसी भी ओर से (अर्थात् बायें से दायें या दायें से बायें) पढ़ा जा सकता है मा सम मोह सजै बन बीन नवीन बजै सह मोम समा। मार लतासि बनावति सारि रिसाति बनावति ताल रमा ॥
मानव ही रहि मोरद मोद दमोदर मोहि यही बनमा।
माल बनी बल केसवदास सदा बसकेल बनी बलमा ॥
(28) अक्षरों के समान देवनागरी अंकों के लेकर भी अनेक चमत्कारपूर्ण कविताएँ लिखी गयी हैं, जो अन्य अंकों में सम्भव नहीं है। उदाहरणार्थ-निम्नलिखित पंक्तियों का स्वारस्य अन्य अंकों में नहीं रह सकता
दम्पति के रस-रीति में तनिक भयो रस-रीस।
अब ही रहो तिरेसठ छन में भयो छत्तीस।
घट्यो मान तेंतिस भयो पय पिय मानो नाहिं।
है छतीस छाछठ भयो पुनि तिरसठ छन माहि ॥
(29) भारतीय वाङ्मय की एक अति महत्त्वपूर्ण शाखा तन्त्र है, जिसकी बहुत सारी बातें • देवनागरी के ही वर्णविन्यास पर निर्भर हैं। अन्य कोई भी लिपि तन्त्र के उस क्षेत्र में देवनागरी का स्थान नहीं ले सकती।
(30) प्रविधिक और वैज्ञानिक उपयोग की दृष्टि से भी देवनागरी सर्वथा उपयुक्त लिपि है। यह दूसरी बात है कि इन क्षेत्रों में इसके लिए अभी अपेक्षित प्रयत्न नहीं हुए हैं, जिसका प्रमुख कारण सरकार की उपेक्षा नीति व तटस्थता के साथ-ही-साथ अंग्रेजी-समर्थक है हिन्दी-विरोधियों का सामूहिक षड्यन्त्र भी है।
उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त देवनागरी में और भी अनेकानेक छोटी-मोटी विशेषताएँ ढूँढी जा सकती हैं।
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